मुख्य परीक्षा अभ्यास प्रश्न -84
प्रश्नः प्राचीन भारत के इतिहास लेखन में राष्ट्रवादी एवं मार्क्सवादी दृष्टिकोणों के बीच अंतर के बिंदुओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः प्राचीन भारत के इतिहास लेखन में राष्ट्रवादी दृष्टिकोण एवं मार्क्सवादी दृष्टिकोण के बीच मौलिक अंतर रहा। इस अंतर का कारण वे परिस्थितियाँ हैं जिनके संदर्भ में इन दृष्टिकोणों का उद्भव हुआ।
राष्ट्रवादी इतिहासलेखन में घटनाक्रम को विशेष महत्व दिया जाता है तथा उनके वर्णन में विशेष रूचि ली जाती है। राष्ट्रवादी दृष्टिकोण व्यक्तित्व केंद्रित होता है। अर्थात्, व्यक्तित्व के उद्घाटन में यह विशेष दिलचस्पी लेता है उदाहरण के लिए, राष्ट्रवादी विद्वानों ने समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्षवर्धन आदि शासकों के व्यक्तित्व विश्लेषण पर अपने को केंद्रित किया।
उसी प्रकार इन विद्वानों ने सिकंदर से लेकर मुहम्मद गोरी तक भारत पर होने वाले महत्वपूर्ण राजनीतिक आक्रमणों का विशिष्ट वर्णन करते हुए उनका समकालीन समाज एवं संस्कृति पर प्रभाव को दर्शाया। इसके अतिरिक्त राष्ट्रवादी दृष्टिकोण में विचारधारा की भूमिका को विशेष महत्व दिया गया है, उदाहरण के लिए, महाजनपद काल में होने वाले प्रमुख परिवर्तनों को बुद्ध एवं महावीर जैसे महान चिंतकों के विचारों के प्रभाव से जोड़कर देखने का प्रयास किया गया। अंत में राष्ट्रवादी इतिहास लेखन ने कला और संस्कृति के अंकन में विशेष रूचि दिखायी जबकि सामाजिक तथा आर्थिक सच्चाइयों को अपेक्षाकृत नजरअंदाज किया।
दूसरी तरफ, मार्क्सवादी इतिहासलेखन ने आर्थिक-भौतिक कारण को ही विशेष तरजीह दी तथा इतिहास में परिवर्तन की व्याख्या मूल ढांचा एवं उपरी ढांचा के परस्पर संबंधों के आधार पर करने का प्रयास किया। इसने आर्थिक ढांचे को मूल ढांचा माना जबकि राजनीतिक-सामाजिक ढ़ाँचे को उपरी ढांचा तथा यह स्थापित करने का प्रयत्न किया कि जब मूल ढांचे में परिवर्तन होता है तो उपरी ढांचे में परिवर्तन होता चलता है। इसी पद्धति को अपनाते हुए उसने इतिहास के अध्ययन को घटनाक्रम से विश्लेषण की ओर मोड़ दिया। उसने मानव व्यक्तित्व को तात्कालिक परिवर्तन से जोड़कर मूल्यांकन किया।
उसी प्रकार, इसने विचारधारा को विभिन्न आर्थिक-भौतिक परिस्थितियों की उपज माना। इसलिए मार्क्सवादी इतिहास लेखन में महाजनपद काल में होने वाले प्रमुख परितर्वन को परिचालित करने वाले मौलिक कारण बुद्ध अथवा महावीर के विचार नहीं हैं अपितु नवीन कृषि अर्थव्यवस्था का प्रसार एवं द्वितीय नगरीकरण है।
उसी तरह मार्क्सवादी इतिहासलेखन में कला एवं संस्कृति अपने आर्थिक परिवेश में स्वतंत्र नहीं है अपितु उसी की उपज है। कला एवं संस्कृति में अभिव्यक्त मूल्य एवं दृष्टिकोण किसी खास वर्ग से संबद्ध होता है। यही वजह है कि मार्क्सवादी विद्वानों ने गुप्तकाल को स्वर्णयुग मानने से इंकार कर दिया क्योंकि उस काल की साहित्यिक एवं कलात्मक उपलब्धियां कुलीन वर्ग की चेतना की उपज थी जनसामान्य की चेतना की अभिव्यक्ति नहीं।
इस प्रकार, मार्क्सवादी विद्वानों ने राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की कुछ मौलिक मान्यताओं को खंडित कर दिया। हालांकि मार्क्सवादी इतिहासलेखन की अपनी सीमा रही है। इसने आर्थिक कारक पर कुछ ज्यादा ही बल दिया है तथा अन्य कारकों को अपेक्षाकृत नज़रअंदाज किया है। फिर भी इतिहास के विश्लेषण में मार्क्सवादी इतिहास लेखन का अहम योगदान रहा विशेषकर इसलिए कि इसने इतिहास के लेखन की पूरी पद्धति ही बदल दी।