न्यायपालिका और चुनाव आयोग
चर्चा में क्यों ?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के 5-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) की नियुक्ति करने वाली समिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करने का विचार प्रस्तावित किया।
पृष्ठभूमि
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 324 (2) के अनुसार चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, न कि संसदीय कानून के अधीन।
- जबकि यह प्रावधान संसद से एक प्रासंगिक कानून का मसौदा तैयार करने की अपेक्षा रखता है, ऐसा कानून अभी तक अधिनियमित नहीं किया गया है।
- मूल रूप से आयोग में केवल एक चुनाव आयुक्त की चर्चा है ,लेकिन चुनाव आयुक्त संशोधन अधिनियम,1989 के बाद इसे एक बहु-सदस्यीय निकाय बना दिया गया। हालांकि, राष्ट्रपति अधिक आयुक्तों की नियुक्ति कर सकता है।
- मुख्य चुनाव आयुक्त(अध्यक्ष) की सिफारिश पर चुनाव आयुक्तों (2 चुनाव आयुक्त) को हटाया जा सकता है।
- चुनाव आयोग भारत में लोकसभा, राज्य सभा, राज्य विधान सभाओं, राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के चुनावों का संचालन करता है। इसका सचिवालय नई दिल्ली में है।
- इसका राज्यों में पंचायतों और नगर पालिकाओं के चुनावों से कोई सरोकार नहीं है। इसके लिए, भारत का संविधान एक अलग राज्य चुनाव आयोग का प्रावधान करता है।(73वाँ एवं 74वाँ संविधान संशोधन)
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार के लिए याचिका:
- 2015 में, SC में एक जनहित याचिका दायर की गई थी जिसके तहत ECI में कार्यकारी नियुक्तियों ने, समय के साथ इसकी स्वतंत्रता को कम कर दिया है।
- नियुक्तियों की वर्तमान प्रणाली संविधान के अनुच्छेद- 324 (2) का उल्लंघन करती है। इसलिए यह असंवैधानिक है।
- जनहित याचिका में कोर्ट से ECI नियुक्तियों के लिए एक स्वतंत्र और कॉलेजियम जैसी प्रणाली स्थापित करने के लिए निर्देश जारी करने का अनुरोध किया गया था।
न्यायपालिका चुनाव आयुक्तों की सर्वश्रेष्ठ चयनकर्त्ता क्यों नहीं हो सकती ?
- वर्तमान में चुनाव आयोग ने स्वतंत्र और तटस्थ प्राधिकरण के रूप में अपने अनुकरणीय कार्य के कारण जनता का विश्वास अर्जित किया है जो चुनावों का आयोजन और रेफरिंग दोनों का कार्य करता है।
- इस उपलब्धि का कारण संवैधानिक प्राधिकरण के रूप में, चुनाव आयोग की स्वायत्तता की गारंटी और इसे कार्यपालिका और न्यायपालिका के हस्तक्षेप से अलग रखना है। हालांकि, संस्था के भीतर से ही सुधारात्मक कार्य किये जाने चाहिए।
न्यायपालिका का तर्क
- अदालत के अनुसार, एक चुनाव आयुक्त स्वतंत्र और निर्भीक निर्णयकर्त्ता होना चाहिए ,न कि सरकारी पक्षकार। अदालत, चुनाव आयुक्त के रूप में सेवानिवृत्त सिविल सेवक अरुण गोयल की हाल ही में हुई नियुक्ति से संबंधित अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को जानने के लिए कार्य करना चाहती है ।
- चुनाव आयोग के आयुक्तों की संख्या निर्दिष्ट नहीं है, जिस कारण सरकार कभी-कभी मौजूदा आयुक्तों के अधिकार को कम करने की दृष्टि से आयोग का विस्तार कर सकती है।
चुनाव आयुक्तों के लिए केवल नौकरशाहों का ही चयन क्यों किया जाता है ?
- शीर्ष अदालत जाँच कर सकती है और एक अयोग्य व्यक्ति को चुने जाने पर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को रद्द कर सकती है, परन्तु अभी तक कोई योग्यता तय नहीं की गई है की किस आधार पर अयोग्य ठहराया जाये।
सरकार का पक्ष
- कानून के अभाव में चुनाव आयुक्तकी नियुक्ति पर केंद्र ने समय की कसौटी पर अप्रत्यक्ष परंपरा को अपनाया है।
- इसके तहत सचिव के पद पर सेवारत और सेवानिवृत्त अधिकारियों की सूची तैयार की जाती है, जिसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के विचारार्थ नामों के रूप में दिया जाता है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति वरिष्ठता का पालन करती है।
- सरकार ने कार्यकारी दायरे में शामिल मुद्दा बताते हुए न्यायालय से हस्तक्षेप न करने का आग्रह किया।
- केंद्र ने तर्क दिया कि चुनाव आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा की शर्तें और कार्य का लेन-देन) अधिनियम, 1991के तहत ,चुनाव आयोग के सदस्यों के वेतन और कार्यकाल के मामले में स्वतंत्र है।
CJI के शामिल होने से सम्बंधित SC के सुझाव के खिलाफ तर्क
- शक्तियों के पृथक्करण के उल्लंघन का जोखिम हो सकता है।
- CJI के शामिल होने से स्वायत्ता की गारंटी हो सकती है, यह एक गलत धारणा है। उदाहरण के लिए, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति करने वाली समिति में CJI को शामिल करने से जाँच एजेंसी की स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं हुई है।
- लोकतांत्रिक मुखिया के साथ प्रतिस्पर्धा अर्थात् CJI को उन चयन समितियों में शामिल करना, जिनमें प्रधानमंत्री शामिल होते हैं।
- चुनाव आयोग ने एक स्वतंत्र और तटस्थ संवैधानिक प्राधिकरण के रूप में अपने अनुकरणीय कार्य के कारण जनता का विश्वास अर्जित किया है, जिसकी स्वायत्तता संविधान द्वारा गारंटीकृत है एवं इसकी कार्यप्रणाली कार्यपालिका और न्यायपालिका के हस्तक्षेप से अछूती है।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
- भारत में प्रमुख संवैधानिक निकायों में चुनाव आयोग एक स्थायी, संवैधानिक निकाय है। यह 25 जनवरी, 1950 को संविधान के अनुसार स्थापित किया गया था।
- यह संविधान के अनुसार चुनावों के संचालन के लिए संपूर्ण प्रक्रिया का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का कार्य करता है।
- राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्य के विधायकों और संसद के कार्यालयों के चुनाव के संबंध में इसके कार्यों एवं शक्तियों को तीन शीर्षकों के तहत विभाजित किया गया है:
1. प्रशासनिक
2. सलाहकार
3. अर्द्ध-न्यायिक
- इनका कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, तक होता है।
- संविधान में चुनाव आयोग के सदस्यों की योग्यता (कानूनी, शैक्षिक, प्रशासनिक या न्यायिक) निर्धारित नहीं की गयी है।
- संविधान ने चुनाव आयोग के सदस्यों की पदावधि निर्दिष्ट नहीं की है।
- संविधान ने सेवानिवृत्त होने वाले चुनाव आयुक्तों को सरकार द्वारा किसी और नियुक्ति से वंचित नहीं किया है।
संभावित प्रश्न
प्रश्न- निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. चुनाव आयोग लोक सेवकों द्वारा अपने चुनाव संबंधी कर्त्तव्यों का पालन करने और पक्षपातपूर्ण गतिविधियों को रोकने, दोनों तरीकों की निगरानी करता है।
2. चुनाव आयोग चुनाव के दौरान अधिकारियों को स्थानांतरित या निलंबित नहीं कर सकता है क्योंकि वे भारत सरकार या राज्य सरकारों के अनुशासनात्मक दायरे में शामिल होते हैं।
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?
a) केवल 1 b) केवल 2
c) 1 और 2 दोनों d) न तो 1 , न ही 2
मुख्य परीक्षा प्रश्न
प्रश्न- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में भारत के चुनाव आयोग की शक्तियों और सीमाओं पर चर्चा कीजिए।(250 शब्द)
स्रोत- द हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ़ इंडिया